‘थप्पड़’ फ़िल्म ने मर्दों के डर पर उंगली रख दी है

ये थप्पड़ फ़िल्म का रिव्यू नहीं है. बस फिल्म से गुज़रते हुए उठे कुछ सवाल हैं. सवाल जो परेशान करते रहे, सवाल जो उत्तर न मिलने की सूरत में दिल में कोई पुराना ज़ख़्म बनकर बैठ गए. सवाल, जिसे सबने ढका, सबने छिपाया, मानो वो कोई सवाल ही नहीं था.

ये कुछ 22 साल पुरानी बात है. मेरी कज़न की शादी थी. एक रात नाच-गाने की महफ़िल जमी और देर रात तक चलती रही. उसी बीच ये हुआ कि उस बड़े से हॉल के एक कोने में भाई ग़ुस्से में आए और उन्होंने भाभी को एक ज़ोर का थप्पड़ मार दिया.

उस शोर के बीच भी थप्पड़ की आवाज़ ऐसे सुनाई दी जैसे भरी महफ़िल में कोई गोली चला दे. अचानक मुर्दहिया सन्नाटा छा गया. गाना बंद, सब चुप. जैसे अचानक कर्फ्यू की घोषणा हुई हो और सब दृश्य से ग़ायब.

रात बीत गई. अगले दिन सब कुछ पहले जैसा ही हो गया. सब ख़ुश थे, सब सज रहे थे, सब शादी में मगन थे. घर की बड़ी-बुजुर्ग औरतें, घर की जवान औरतें, बहुएं, लड़कियां, घर के मर्द. सबने अपनी ख़ुशी की स्क्रिप्ट में से वो थप्पड़ ऐसे डिलीट किया कि मानो वो कभी था ही नहीं.

हालांकि, उसका निशान रह गया था. सिर्फ़ दिल पर नहीं, गोरी-चिट्टी भाभी के बाएं गाल पर भी. भाई ख़ासे कद्दावर, लहीम-शहीम मर्द थे. उनके थप्पड़ से भाभी का बायां गाल सूज गया था, आंखों के नीचे काला पड़ गया था.

Source: BBC Hindi News

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