अधिराज शर्मा की लिखी कविता “मैं और मेरी आवाज़ें”

रोज़ आवाज़ें शोर करती हैं
भीतर कहीं मेरे
मुझसे कहती हैं
ये हमारी नियति हैं
तुम्हारे मन को झंझकोरेना
ले जाना तुम्हें तुम्हारे अतीत में

रोज़ वो शोर करती हैं
मन के कांधों पर हाथ रख
बताकर ख़ुद को
मेरे ही जीवन का अंश
कहती हैं! रूह ने जब तुम्हारी
ली थी पहली सिसकी
मैंने ही तो सुना था उसे
तुम से भी पहले

रूठा था फिर छूटा था
जब तुझसे वो तेरा सपना
मुठ्ठी के भीतर की रेत की भांति
कण कण गया था जब
छोड़ तुझे वो तेरा अपना
मैंने ही तो आंसू पोंछे थे
तेरे संतापी मन के

अखर रहा जैसे तुझे
जाना उस अपने का
आकाश जैसे अनंत में
कहीं खो जाने का
फिर मान क्यों नहीं लेते
मुझे भी अंश तुम्हारा ही
अस्तित्व मेरा तुमसे, तुमसे मेरे होने का

करती हूं शोर कि
तुम थाम ना लो श्वास अपनी
वेदना के शिखर का आकार देखकर
भ्रम नहीं हूं मैं
सच हूं मैं तेरे ही अस्तिव का

जगाती हूं तुम्हें कि
स्मृतियों के घने कोहरे में
कहीं भटक ना जाओ तुम
मिला नहीं जो तुम्हें
अंश तो अब वो भी
सदैव तुम्हारा ही है
अल्प ही सही
स्मृति तुम भी अब
उसके हृदय की हो

करती हूं शोर कि
बन जाओ विराट तुम इतने
मैं जब भी सुनाई दूं तुम्हें
हृदय तुम्हारा उल्लास से भरा हो
बन जाओ विराट तुम इतने कि
कल जो गया था छोड़ तुम्हें
कह रहा वो भी अब
अभिमान हो तुम मेरे

 

मैं गूंज करूं जब भी भीतर तुम्हारे
बोध तुम ही मुझे करा देना कि
स्वयं से ही तो बात कर रहा मैं
स्मृति, मैं और तुम
सब तुम ही तो हो
घटित मन तुम्हारा ही तो है
नियति में मेरी और तुम्हारी
यही तो निहित हैं

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