शिमला। कृषि और बागवानी क्षेत्र में नित नए बदलाव आ रहे हैं। समय की मांग के अनुसार किसानों ने अपने आप को तकनीक का सहारा लेते हुए कई बार बदला और बदलाव का यह दौर निरंतर जारी है। किसानों के कल्याण के लिए समय-समय पर केंद्र और राज्य सरकारें अनेक योजनाएं आई और चली गई। देश को गरीबी से बाहर निकालने के साथ आर्थिक मंदी और कोरोना महामारी के दौर में केवल कृषि क्षेत्र ने बड़ा संबल प्रदान किया। हिमाचल की आर्थिकी कृषि और बागवानी क्षेत्र पर अधिकतर निर्भर करती है। कृषि क्षेत्रों में आए बदलावों ने किसान-बागवान की जिंदगियों में गहरा असर डाला है। सदी की शुरूआती सालों में जहां देशभर में कृषि क्षेत्र में उच्च उत्पादन को लेकर होड़ मची हुई थी, वहीं दूसरी ओर हिमाचल के किसान खेती के साथ बागवानी में हाथ आजमाना शुरू कर रहे थे। वैसे तो हिमाचल प्रदेश में सेब बागवानी का इतिहास 100 साल से भी पुराना है लेकिन इस सदी के शुरूआती सालों में किसानों ने कृषि के साथ बागवानी की ओर बड़ी तेजी से रूख किया। जिसका नतीजा है कि आज प्रदेश में लगभग 5 हजार करोड़ रूपये का सेब कारोबार होता है।
कृषि के साथ बागवानी की शुरूआत से जहां किसानों की आर्थिकी में तो सुधार तो हुआ लेकिन ये किसान अपनी पंरपरागत फसलों से दूर होते गए और पुराने अनाजों के स्थान पर गेंहू, मक्का और धान की खेती का दायरा बढ़ता गया। पंरपरागत फसलों, जौ, कोदा, फाफरा, ओगला, रागी और दालों की खेती के लिए पहचाने जाने वाले पहाड़ी प्रदेश में आज आलम यह है कि अब ये पुराने मोटे अनाज विलुप्ती की कगार पर पहुंच गए हैं। जब मैं कृषि विशेषज्ञों और लंबे समय से खेती कर रहे किसानों से पुराने अनाजों की विलुप्ती के बारे में पूछता हूं तो इसके पीछे दो मुख्य कारण बताते हैं। वे बताते हैं कि एक तो रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से इन पुराने मोटे अनाजों की उत्पादकता पर गहरा असर पड़ा है और दूसरा आज की युवा पिढ़ी इन्हें खाने से परहेज करती है।
खेती में बढ़ते रसायनों के प्रयोग और इनसे मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहे विपरित प्रभावों को देखते हुए वर्ष 2005 के बाद देश भर में एक आर्गेनिक आंदोलन की शुरूआत हुई। इससे हिमाचल भी अच्छूता नहीं रहा। लेकिन जानकारी के अभाव और सही प्रशिक्षण न होने के चलते जैविक खेती किसानों के लिए फायदे का सौदा साबित नहीं हो सकी। शुरूआती दौर में इसमें किसानों को बहुत नुकसान उठाना पड़ा वहीं इसके उत्पाद इतने मंहगे मिल रहे थे कि यह आम उपभोक्ताओं की पहुंच से ही बाहर हो गए। बावजूद इसके दस वर्षों तक जैविक खेती देशभर में ख्याति पाती गई और देश ही नहीं विदेश भी जैविक उत्पादों की भारी मांग है।
वर्ष 2015 के बाद जैविक खेती में बाहरी बाजार की बढ़ती दखल और मंहगी होती इस खेती से भी किसानों का मोहभंग होता गया। इसके बाद अब देशभर में कृषि क्षेत्र में प्राकृतिक खेती की लहर की शुरूआत हुई है। इस खेती पद्धति की बयार हिमाचल प्रदेश समेत देश के कई राज्यों में चल रही है। प्राकृतिक खेती करने वाले किसान बताते हैं कि इस खेती विधि में उनकी बाजार पर से निर्भरता खत्म हुई है और उनकी कृषि लागत शून्य तक पहुंच गई है।
प्राकृतिक खेती में किसान एक देसी गाय के गोबर, मूत्र व अन्य स्थानीय वनस्पतियों से आदान तैयार कर 30 एकड़ भूमि पर आसानी से खेती कर सकता है। वर्तमान चल रही प्राकृतिक खेती की बयार से जहां किसानों की बाजार पर से निर्भरता खत्म होकर उनकी कृषि लागत खत्म हुइ है। वहीं दूसरी ओर मानव स्वास्थ्य और भरपूर पोषण की जरूरत भी पूरी हो रही है। इस खेती विधि में किसान एक साथ बहुत सारी फसलों की मिश्रित खेती करते हैं, जिससे फसल विविधता बढ़ती है। इसके अलावा आहार विविधता और पोषक तत्वों की जरूरत को पूरा करने के लिए पुराने अनाजों को भी दोबारा से उत्पादित किया जा रहा है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कृषि क्षेत्र में भी देखने को मिल रहे हैं और कम बारिश, सूखा, बाढ, ओलावृष्टी और अन्य अति मौसमों के चलते कृषि क्षेत्र में हर साल करोड़ों का नुकसान हो रहा है। इससे निपटने के लिए किसान-बागवानों को पर्यावरण हितैषी कृषि की ओर रूख करना आज की जरूरत बन गया है। ऐसे समय में प्राकृतिक खेती बदलते परिवेश में एक सशक्त विकल्प बनकर उभरी है।
कृषि क्षेत्र के बदलते परिवेश में अब किसानों को भी चाहिए कि वे अब उपभोक्ताओं की मांग अनुरूप उत्पादन करें। इसके लिए अब किसानों को सतत खाद्य प्रणाली की ओर बढ़ना चाहिए। जिसमें न सिर्फ अनाज शामिल हों बल्कि जंगलों से मिलने वाली खाद्य वस्तुएं, दूग्ध उत्पाद, मांस, मच्छली और अन्य सभी तरह के खाद्य पदार्थों को भी जोड़ा जाना चाहिए। सतत खाद्य प्रणाली से न सिर्फ हम वर्तमान में पोषणयुक्त खाद्यान्न की जरूरत को पूरा कर सकेंगे, बल्कि भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए प्रकृति के साथ सौहार्द बनाते हुए कृषि क्षेत्र को संजोए रख सकते हैं।